एस. अनंतनारायण
हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूक होते हैं। हमारी प्रमुख ज्ञानेंद्रियां हैं - दृष्टि, स्पर्श और ध्वनि। दृष्टि से रंग और स्थानिक बारीकियों का पता चलता है, जबकि स्पर्श से हमें गर्मी और चिकने-खुरदरे वगैरह के बारे में जानकारी मिलती है। सुनने की क्षमता एक महत्वपूर्ण संवेदना तो है ही, यह कई प्रजातियों में संवाद का भी मुख्य साधन है।
डिपार्टमेंट ऑफ ब्रोन एंड कॉग्निटिव साइंसेज़, एमआईटी के जेम्स ट्रेयर और जोश मैकडरमॉट ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी यू.एस. नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में अपने शोध पत्र में बताया है कि कान को प्राप्त होने वाले संकेत कई रुाोतों से प्राप्त सूचनाओं का मिश्रण होते हैं और ध्वनि तरंगों में काफी विकृति और दोहराव के बाद ही हमें सुनाई देते हैं। अलबत्ता, विकृति का प्रकार हमारे आस-पास के स्थान की ज्यामिति पर निर्भर करता है, और उनका शोध इस बारे में है कि किस तरह जैविक तंत्र मिश्रित रुाोतों को अलग-अलग करके परिवेश का आकलन करते हैं।
आंखों और कानों के कार्य करने में मुख्य अंतर यह है कि सूचना ग्रहण करने के लिए आंखों को प्रकाश स्रोत की सीध में आकर उसे देखने की ज़रूरत होती है, जबकि कान सभी दिशाओं से आने वाली ध्वनियों पर एक जैसी प्रतिक्रिया देते हैं। इसका कारण यह है कि सामान्य परिस्थितियों में प्रकाश सीधी रेखा में चलता है, जबकि ध्वनि तरंगें, जिनकी तरंग लंबाई मीटरों में होती है, हर नुक्कड़-कोने को आसानी से पार कर जाती हैं। और तो और, अधिकतर सतहें ध्वनि तरंगों को परावर्तित भी करती हैंै। नतीजतन, आंखें विशिष्ट वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करके देखे जा रहे क्षेत्र का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर सकती हैं, जो कानों के लिए कुछ हद तक ही संभव है।
आंखों में मौजूद लेंस की मदद से प्रतिबिंब को रेटिना पर स्पष्ट रूप से केंद्रित किया जा सकता है, जो दूरी का अनुमान लगाने में सहायक होता है। इसके अलावा दो आंखें होने की वजह से हम गहराई भी देख सकते हैं और यह समझ पाते हैं कि कौन-सी वस्तु नज़दीक है और कौन-सी वस्तु दूर है। ऐसे ‘स्टीरियोस्कोपिक’ दृश्य के समान ही श्रवण अनुभूति ‘स्टीरियोफोनिक’ ध्वनि है। हमारे दो कान ध्वनि का स्रोत जानने में मदद करते है बशर्ते कि हम ध्वनि को सीधे-सीधे सुनें न कि उनकी प्रतिध्वनि को, या लाउडस्पीकर वगैरह से उत्पन्न सेकंड हैण्ड ध्वनि को। दृष्टि में गहराई इसलिए आती है क्योंकि दोनों आंखों द्वारा देखा गया दृश्य थोड़ा अलग-अलग होता है। इसका कारण यह है कि दोनो आंखों के बीच में कुछ इंच की दूरी होती है और मस्तिष्क इस बात का फायदा उठाता है।
लेकिन ध्वनि के मामले में, किसी भी स्रोत से प्रत्येक कान तक पहुंचने वाली ध्वनि कम या अधिक तीव्र होगी, या तरंगें एक-दूसरे से थोड़ी अलग-अलग स्थिति में होंगी। जब दोनों कानों पर पहुंचने वाली ध्वनि समान रूप से तीव्र या एक ही स्थिति में होती है, तो निश्चित रूप से हम ध्वनि को एकदम सामने या पीछे से आता हुआ महसूस करते हैं। हालांकि, यह निर्णय भी अक्सर धुंधला पड़ जाता है क्योंकि कानों तक पहुंचने वाली ध्वनि कई बार सीधे-सीधे स्रोत से नहीं बल्कि अन्य वस्तुओं या सतहों से टकराकर आती है। इसकी वजह से स्रोत ‘ओझल’ रह जाता है और ‘गुंजन’ पैदा होता है। गुंजन की वजह से किसी बड़े हॉल में बात सुनने में दिक्कत आ सकती है क्योंकि दीवारों और छतों से प्रत्येक शब्द की प्रतिध्वनि अगले शब्द की ध्वनि के साथ मिल जाती है!
एमआईटी के वैज्ञानिक द्वय का अध्ययन लोगों के सामान्य आवासों में गूंजती ध्वनियों के गुणधर्मों के बारे में था। इसमें यह देखा गया कि वास्तव में लोग ध्वनि के किन भागों के बीच भेद कर सकते हैं, जिनसे उन्हें ध्वनि के रुाोेतों को अलग-अलग करने की क्षमता में मदद मिलती है। अध्ययन से पता चलता है कि जाने-पहचाने स्थानों में गुंजन के अनुभव के आधार पर मस्तिष्क यह पहचान सकता है कि कौन-सी ध्वनि स्रोत से आ रही है और कौन-सी परिवेश से। इससे ध्वनि को पहचानने में मदद मिलती है और परिवेश के बारे में पता चलता है।
चमगादड़ या डॉल्फिन के मामले में, ध्वनि का उपयोग कहीं अधिक प्रभावी होता है। इन जानवरों में कान पथ-प्रदर्शन के मुख्य अंग होते हैं। इन मामलों में अंतर इतना है कि ये प्राणी अपने आसपास की वस्तुओं द्वारा पैदा की गई ध्वनियों को नहीं सुनते बल्कि स्वयं द्वारा प्रेषित एक तीक्ष्ण ‘क्लिक’ की अलग-अलग प्रतिध्वनियां सुनते हैं। जाहिर है कि पहली प्रतिध्वनि सुनाई देने के अलावा दूसरी, तीसरी और भी कई प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ती होंगी जो उनके परिवेश के बारे में जानकारी देती हैं। एमआईटी के शोधकर्ताओं द्वारा मनुष्यों के साथ किए गए शोध में भी इसी तरह के नतीजे मिले हैं।
इस अध्ययन के पहले चरण में यह देखा गया कि क्या लोगों के सामान्य श्रवण परिवेश की प्रतिध्वनियों में कोई सांख्यिकीय पैटर्न हैं। यदि ऐसा कोई ‘सामान्य’ पैटर्न है तो इस बात की व्याख्या की जा सकती है कि मस्तिष्क प्राप्त ध्वनि संकेतों में से गूंज के कारण उत्पन्न विकृति और ज़रूरी संकेतों में फर्क कर पाता है और उन्हें अलग कर पाता है। इस अध्ययन में सबसे पहले उन स्थानों की पहचान की गई जिन्हें प्रयोग के नज़रिए से ‘सामान्य’ परिवेश माना जा सकता है। ‘सामान्य’ परिवेश चुनने के लिए प्रतिभागियों के एक समूह को टेक्स्ट संदेश के माध्यम से दो हफ्तों तक दिन में 24 बार संदेश भेजे गए। प्रतिभागियों को संदेश मिलते ही यह सूचना देना था कि इस वक्त वे किस स्थान पर हैं। इस तरह बोस्टन महानगर में 301 स्थानों की एक प्रारंभिक सूची तैयार की गई जिसमें 271 स्थानों को अध्ययन के लिए संभव पाया गया।
इन 271 स्थानों पर हुए परीक्षण में उन स्थानों पर प्रतिभागियों को प्राप्त होने वाले ध्वनि संकेतों की प्रकृति से सम्बंधित डैटा का विश्लेषण किया गया, खास तौर पर गुंजन का समय और उसका आयाम, और ध्वनि के मंद पड़ने के साथ-साथ उसकी तीव्रता कम होना। इस अध्ययन के अनुसार, ध्वनि का अंतिम भाग जिस तरह मंद पड़ता है उसमें कोई सामान्य पैटर्न होता है। जिसे अब तक दर्ज नहीं किया गया था। अध्ययन के निष्कर्ष में इस बात की संभावना जताई गई है कि जाने-पहचाने परिवेश में मस्तिष्क अपने अनुभवों से इन पैटर्न को पहचानने लगता है और इन्हें पृथक करने की व्यवस्था बनाता है।
अध्ययन के अनुसार श्रवण प्रणाली में ऐसी व्यवस्था होती है जो परिचित परिवेश मेंे अनुभव के आधार पर ध्वनि संकेतों में से प्रतिध्वनियों के कारण हुई विकृति को पृथक कर देती है। यह व्यवस्था ध्वनि के स्रोत पहचानने में मदद करती है। और साथ ही सामान्य परिवेश का अंदाज़ा भी देती है। दृष्टि की तरह श्रवण प्रणाली में भी प्राप्त जानकारी कम या विकृत होने पर अनुभवों का उपयोग करने की क्षमता होती है। (स्रोत फीचर्स)